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सितंबर 5, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

Memories from childhood -I

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                     यादें … बचपन की-I इसमें कोई शक नहीं की जीवन का सबसे हसीं लम्हा बचपन ही होता है । जब भी आपका मन उदास हो तो  आप अपने बचपन के दिनों को याद करें ,मन अपने आप खुश हो जायेगा । बचपन है ही ऐसा । हर किसी की अपने -अपने बचपन की यादें होंगी ,मेरी भी हैं ,उनमे से कुछ रोचक यादों को यहाँ लिपिबद्ध करने जा रहा हूँ ।  अपने नानी घर रहना बहुत पसंद था ,अभी भी है लेकिन उस समय कुछ ज्यादा ही था और हो भी क्यों ना बचपन का समय था और   वहां मुझे मेरे हर शरारती काम में साथ देने वाला  मेरा ममेरा भाई जो था ।  एक बार की बात है मैं और मेरा ममेरा भाई जिसका की नाम प्रिंस है, गाँव के लड़को के साथ 'पिट्टो ' खेल रहे थें । एक और खास बात हमदोनो भाई हमेसा एक ही टीम में रहते थें चाहे कुछ भी हो जाये । खेल जारी था ,हमारी टीम को गेंद से  पिट्टो (stacks of seven stones) गिरना था । हमारे टीम के एक लड़के ने पिट्टो गिरा दिया फिर हम सब खेल के नियम के मुताबिक विपक्षी टीम के गेंद के प्रहार से बचने के लिए इधर -उधर भागने लगें । एक लड़के ने गेंद मारी और गेंद किसी को छुए बिना पिट्टो से दूर जा कर गिरी । म

TRUE JOURNEY

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                        एक यात्रा                      लहरों की ललकार सुनकर मैं कूद पड़ा मंझधार में , लेकिन पटवार भूल आया मैं लोकसभा की दरबार में।  लहरों से जितना है मुझे , बस यही था दिलो-दिमाग में , लेकिन मेरे पैर खड़े थे कागज़ के एक  नाव में।  बार -बार हुंकार भरता , सागर उस काल में  मेरे हौंसले की परीक्षा लेता अपने मदमस्त उछाल में  दूर -दूर तक किनारा न था ,केवल सन्नाटा था उस काल में  अपने ही आवाज़ को सुनता मैं ,छोटी सी अंतराल में । मेरे हौंसले पस्त न हुए , बढ़ता गया लहरों की उछाल में, लेकिन मेरे पैर खड़े थें कागज़ के एक नाव में ।   उसने अब आँधियाँ उठाए ,जैसे आंदोलन भारत देश में , प्रलयरूपी तांडव किया वो ,अपने संपूर्ण आवेश में ।  इतने से भी जब डिगा नहीं मैं ,मात खाया वह  अपने हर चाल में , कुछ देर तक शांत रहा वो अपने ही  अनंत विस्तार में ।  मेरी आँखे चमक उठीं , देखकर सुन्दर कलियाँ  उसके कंटीले धार में , और मैं उलझता चला गया उसके  इस मनमोहक जाल में ।  जबतक लेती कलियाँ मुझे अपने हसीं आगोश में , तब तक मुझे आभास हुआ की मेरे  पैर खड़े हैं कागज़

DORAHE

                                 दोराहे  आज इस जीवन यात्रा में  खड़ा हूँ मैं दोराहे पर , एक तरफ है ,फूलों की बगिया  तो दूसरी तरफ शूलों की शैय्या ।  महक उठती है फूलों की काया  केवल सुहाने ऋतुराज में  शुष्क रहती है इसकी रास नदियां  बाकि के हर मास में ।  रीझ जाता है ये मन  आकर्सित हो कर उन फूलों पर , फिर पछताता है अंत काल में , अपने  कार्यों पर ।  इतिहास गवाह है ,दिव्य-छवि मिली उन्ही को  चलें है जो इन शूलों पर  पार किया भौसागर को  चढ़कर शूलों की नैया पर ।  जग उन्ही की जय करता है  देखते नही जो क्षणभंगूरों पर , हे! अमर काव्य तू उनको पथ दिखा  जो खड़े हैं इस दोराहे पर ॥                                         -राहुल सिंह 

NANHE HAATH

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नन्हे हाथ  ये नन्हे हाथ.…  शहरों की गलिओं में , सड़कों की चौहाने पर  स्वर्ण ढूंढते ये कोमल हाथ  और.…  स्वर्ण भस्म में लिपटे उनके गात  जिसपर लदा रहता है, हरदम एक मोटरी साथ  सिर्फ ये ही नहीं , लम्बे -लम्बे पलटफ़ॉर्म पर  प्रातः भोर में , अधखुले आँख  साथ में चाय की केतली  पकड़े ,उनके ठिठुरते हाथ  चीख -चीख कर कररही है  आज़ाद हिंदुस्तान की हाल बयां ।  प्रायः  किसी ढाबों में ,किराना दुकानों पर  सख़्त पत्थरो के बीच दिख जातें हैं  फूल से कोमल हाथ ।  यहाँ  तक की  रंगीन पानी वाले घरों में   धुँआ से बने छतों के निचे  अपने मालिक के इशारों पे नाचते  दिख जाते हैं ये मासूम हाथ  ये "चाचा नेहरू " के प्यारे हाथ  आज चाह रहे हैं किसी का साथ ॥ _ राहुल सिंह