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*न्याय विहीन आर्थिक विकास हिंसा को जन्म देता है...!*

चोरी, लूट, अपहरण, रिश्वतखोरी, जमाख़ोरी आदि प्रायः अखबारों की सुर्ख़ियों में होतें हैं। ये सुर्खियाँ इस बात की ग़वाह हैं कि सभ्यता के विकास के साथ-साथ मानव मूल्यों का ह्रास हुआ है एवं व्यक्तिगत आर्थिक विकास हेतु हिंसात्मक गतिविधियों में बढ़ोतरी हुई है। समाज में हमेशा परिवर्तनशीलता एवं गतिशीलता विद्यमान रहतें हैं। इसी कारण मानव प्रवृति में भी परिवर्तन आया। विकास के अन्य प्रतिक अर्थ के सामने बौने हो गए। आर्थिक विकास, विकास का सबसे बड़ा एवं एकमात्र द्योतक के रूप में उभरकर समाज में आसन ज़मा लिया। इस प्रकार अर्थ ही सर्वोपरि हो गया। कहतें हैं "खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है।" समाज में एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को देखकर अपनी हैसियत तय करता है। हैसियत का सम्बन्ध भी आर्थिक विकास से ही होता है। एक व्यक्ति उनसब चीज़ों को पा लेना चाहता है जो उसके आस-पड़ोस में तो मौजूद है परन्तु उसका उसपे स्वामित्व नहीं है। इसी तरह समाज में एक संघर्षात्मक प्रतिस्पर्धा का जन्म होता है। बुनियादी ज़रूरतों के साथ साथ अर्ध एवं पूर्णविलासिता वस्तुएँ भी प्राथमिकता बना लेती हैं। अब इन ज़रूरतों की पूर्ति के लिए ढ़ेर स