*न्याय विहीन आर्थिक विकास हिंसा को जन्म देता है...!*


चोरी, लूट, अपहरण, रिश्वतखोरी, जमाख़ोरी आदि प्रायः अखबारों की सुर्ख़ियों में होतें हैं। ये सुर्खियाँ इस बात की ग़वाह हैं कि सभ्यता के विकास के साथ-साथ मानव मूल्यों का ह्रास हुआ है एवं व्यक्तिगत आर्थिक विकास हेतु हिंसात्मक गतिविधियों में बढ़ोतरी हुई है। समाज में हमेशा परिवर्तनशीलता एवं गतिशीलता विद्यमान रहतें हैं। इसी कारण मानव प्रवृति में भी परिवर्तन आया। विकास के अन्य प्रतिक अर्थ के सामने बौने हो गए। आर्थिक विकास, विकास का सबसे बड़ा एवं एकमात्र द्योतक के रूप में उभरकर समाज में आसन ज़मा लिया। इस प्रकार अर्थ ही सर्वोपरि हो गया।

कहतें हैं "खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है।" समाज में एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को देखकर अपनी हैसियत तय करता है। हैसियत का सम्बन्ध भी आर्थिक विकास से ही होता है। एक व्यक्ति उनसब चीज़ों को पा लेना चाहता है जो उसके आस-पड़ोस में तो मौजूद है परन्तु उसका उसपे स्वामित्व नहीं है। इसी तरह समाज में एक संघर्षात्मक प्रतिस्पर्धा का जन्म होता है। बुनियादी ज़रूरतों के साथ साथ अर्ध एवं पूर्णविलासिता वस्तुएँ भी प्राथमिकता बना लेती हैं। अब इन ज़रूरतों की पूर्ति के लिए ढ़ेर सारे धन की आवश्यकता होती है। जब कठिन परिश्रम के वावजूद भी वह अर्थ प्राप्त नहीं होता तो मानव धनार्जन हेतु अन्य मार्गों का सहारा लेता है जिसे प्रायः लोग 'शॉर्टकट' की संज्ञा देतें हैं। ये रास्ते कभी भी न्यायोचित नहीं होते तथा ठगी, जालसाज़ी एवं अन्य प्रकार के हिंसा को जन्म देतें हैं।

यद्यपि ऐसी प्रवृतियाँ मानव अथवा समाज में हमेशा से मौजूद रहें हैं परन्तु 'पूँजीवाद' के उद्भव से इन प्रवृतियों में और भी प्रगाढ़ता आई है।  पूँजीवाद हमेंशा से निजी सम्पतियों एवं एकाधिकार का समर्थक रहा है अतः इसके उद्भव एवं विकास से स्वामित्व तथा प्रभुत्व को बल मिलना स्वभाविक है।

भारत में वार्षिक आपराधिक गतिविधियों का लेखा-ज़ोखा रखने का काम "राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अधीन है। यह संस्था गृहमंत्रालय के अधीन होकर काम करती है। NCRB के मुताबिक़ वर्ष 2015 में सबसे ज्यादा महाराष्ट्र में डकैती एवं लूट की घटना 784 एवं 8561 क्रमशः सामने आयी। वहीं इस मामले में बिहार दूसरे नंबर पर विराजमान है। वहीं पूरे भारत में 2015 के वर्ष में डकैती के 3885, लूट के 28692, चोरी के 361792 घटनाएँ सामने आयीं। पूरे देश में सम्पति सम्बंधित अपराध NCRB के ही मुताबिक़ वर्ष 2015 में कुल अपराध का 21.2 प्रतिशत रहा। वहीं दिल्ली में इसका प्रतिशत 63.5 रहा।

NCRB के द्वारा इन अपराधिक मामलों के विस्तार से जाँच किये जाने पर यह बात सामने आयी कि इन गतिविधियों में लिप्त युवाओं की संख्या अधिक है। साथ ही साथ सरकारी कार्यालयों से रिश्वतख़ोरी एवं बाज़ार से जमाख़ोरी की शिकायतें भी अधिक हैं। इनसब के अलावा समय-समय पर घोटालों की भी खबरें आती ही रहती है। चाराघोटाला, 2G, व्यापम, जैन हवाला इसके बहुचर्चित उदाहरण हैं।

अर्थशास्त्र की एक महत्वपूर्ण उक्ति है - "आवश्यकताएँ अनंत हैं पर उन्हें पूरा करने के साधन सिमित हैं।" अतः इस समस्या का एक स्वाभाविक कारण सामने आता है वो है 'अतिमहत्वाकांक्षा' .

दूसरा कारण रोज़गार से सम्बंधित है। जिस श्रेणी की आवश्यकताएँ या यूँ कह लें की महत्वाकांक्षाएँ मौजूद हैं, रोज़गार मौजूद नहीं है, वैसा रोज़गार के लिए योग्यता नहीं है। अतः दूसरे रास्ते तलाशे जाने की संभावनाएं सजग हो उठती हैं।

तीसरा यह की मुद्रा के प्रचलन से वस्तुओं को प्राप्त कर लेना अपेक्षाकृत आसान हो गया। अतः लोगों में उपभोग करने की प्रवृति प्रबल होती चली गयी। मुद्रा से हर चीज़  प्राप्त की जा सकती है, यह बात दिमाग़ में घर कर गयी। मुद्रा साधन तथा साध्य दोनों ही रूपों में देखा जाने लगा. इसे पा लेने की प्रबल इच्छा किसी भी हद तक जाने का कारण हो गया।

समस्त उपर्युक्त कारकों से स्पस्ट है कि यह समस्या वैचारिक एवं मानव प्रवृति सम्बंधित समस्या ज्यादा है। मानव के मन में यह मिथक बैठ गया कि विकास का अर्थ केवल आर्थिक विकास से ही है।  अतः इसका सामाधान समाज में ऐसा माहौल का सृजन करना है जिसमें विकास के प्रतिक के तौर पर व्यक्तिगत आर्थिक विकास का स्थान सबसे निम्न हो। समाज एवं व्यक्ति के चारित्रिक एवं वैचारिक विकास पर अधिक बल दिया जाए।

दूसरा सामाधान रोज़गार का सृजन है जिससे कोई भी व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत बुनियादी जरूरतो को पूरा करने में सक्षम हो। समाज में आर्थिक समानता पर बल दिया जाना चाहिए। हालाँकि उपर्युक्त दोनों बातें आपस में विरोधाभास उत्पन्न करती जान पड़ती है परन्तु ऐसा बिलकुल भी नहीं है क्योंकि यह यथार्थ है कि आर्थिक विषमता वर्ग के संघर्ष को उत्पन्न करता है और साथ ही साथ दीर्घकाल में नैतिक पतन का कारण बनता है। रूसो ने कहा था - "कोई भी व्यक्ति इतना अमीर नहीं होना चाहिए जो दूसरों को ख़रीद सके और कोई इतना ग़रीब नहीं की बिकने को मजबूर हो जाए।" रामधारी सिंह दिनकर ने भी लिखा है -
"शान्ति नहीं तबतक; जबतब
सुख भाग्य न नर का सम हो, 
नहीं किसी को बहुत अधिक हो,
नहीं किसी को काम हो।"

अभी तक उपर्युक्त समस्त चर्चा से तीन गूढ़ बातें निकलकर सामने आतीं हैं। यही तीन कारक न्याय विहीन आर्थिक विकास के कारक भी हैं। अतिमहत्वाकांक्षा, आर्थिक विषमता, बेरोज़गारी न्याय विहीन पथ का निर्माण करतें हैं जो समाज में हिंसक गतिविधियों को बढ़ावा देता है। अतः समाज को इन गतिविधियों को न्यून करने के लिए हमेशा प्रयत्नशील होना चाहिए। व्यक्तियों को व्यक्तिगत आर्थिक विकास से ज्यादा बौद्धिक विकास पर बल देना चाहिए। विद्या एवं योग्यता को प्राथमिकता देनी चाहिए। संस्कृत का कालजयी श्लोक है-

                               "विद्या ददाति विनयम 
                                 विनयाद याति पात्रताम। 
                                 पात्रत्वाद धनमाप्नोति 
                                  धनाद धर्मस्ततः सुखं।|"         

                          ~  राहुल सिंह 

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