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जनवरी 5, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बेकारी में ग़ज़ल

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जीवन के कई रंग दिखाती जा रही है बेकारी मुझे बहुत थकाती जा रही है * बैठकर सुबह, सोकर रात गुज़ार देना कहानी कुछ यूँ      बनाती जा रही है * जो बाँधी हवा, हवा बनकर छू हो गयी नज़र ख़ुद से नज़र चुराती जा रही है * न झुका सर जो सज़दे में किसी के रोटी की चाहत झुकाती जा रही है * या रब कैसी घड़ी ये आन पड़ी है वक़्त दर वक़्त आज़माती जा रही है * दुश्वारी है की फ़ुर्सत व फ़ुर्सत है ज़ेहन से मेरी ज़वानी जा रही है * ख़ुश-फ़हमी है की बुलबुल गीत सुनाती है आह-ओ-फ़रियाद दुहराती जा रही है * दरिया तैर कर उस पार पहुँच जा 'सिंह' दरिया की अब रवानी जा रही है                                 राहुल सिंह