बेकारी में ग़ज़ल
जीवन के कई रंग दिखाती जा रही है
बेकारी मुझे बहुत थकाती जा रही है
*
बैठकर सुबह, सोकर रात गुज़ार देना
कहानी कुछ यूँ बनाती जा रही है
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जो बाँधी हवा, हवा बनकर छू हो गयी
नज़र ख़ुद से नज़र चुराती जा रही है
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न झुका सर जो सज़दे में किसी के
रोटी की चाहत झुकाती जा रही है
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या रब कैसी घड़ी ये आन पड़ी है
वक़्त दर वक़्त आज़माती जा रही है
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दुश्वारी है की फ़ुर्सत व फ़ुर्सत है
ज़ेहन से मेरी ज़वानी जा रही है
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ख़ुश-फ़हमी है की बुलबुल गीत सुनाती है
आह-ओ-फ़रियाद दुहराती जा रही है
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दरिया तैर कर उस पार पहुँच जा 'सिंह'
दरिया की अब रवानी जा रही है
राहुल सिंह
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