ऐ प्रिये...
ऐ प्रिये तुम मिल गयी ऐसे
क्या बतलाऊँ मिली तुम कैसे
भटक रहा तन था मेरा
मृगतृषणित मन था मेरा
पतझड़ सा मैं वीरान पड़ा था
पत्थर सा मैं ठोकर खाता
फिर कहीं से तुम चली आयी
नदी सी बहती कल कल करती
तुमने मेरी प्यास बुझाई
शुष्क वृक्ष ने हरियाली पाई
जो विह्वल मन दौड़ रहा था
उसे मिला अब ठौर ठिकाना
ऐ प्रिये तुम मिल गयी ऐसे
क्या बतलाऊँ मिली तुम कैसे
झरने सी तुम गिर रही हो
मेरे पत्थर दिल को चूम रही हो
कण कण अब मैं खुल रहा हूँ
तुझमें जाकर घूल रहा हूँ
ऐ प्रिये अब ले चल कहीं
वहाँ जहाँ सभी सो रहें हों
वहाँ जहाँ सब शून्य पड़ा हो
क्षितिज पर ले चल क्षितिज पर ले चल
वहाँ जहाँ आसमां धरती चूम रहा हो
ले चल- ले चल , ले चल - ले चल
ऐ प्रिये अब ले चल - ले चल।
~ राहुल सिंह
क्या बतलाऊँ मिली तुम कैसे
भटक रहा तन था मेरा
मृगतृषणित मन था मेरा
पतझड़ सा मैं वीरान पड़ा था
पत्थर सा मैं ठोकर खाता
फिर कहीं से तुम चली आयी
नदी सी बहती कल कल करती
तुमने मेरी प्यास बुझाई
शुष्क वृक्ष ने हरियाली पाई
जो विह्वल मन दौड़ रहा था
उसे मिला अब ठौर ठिकाना
ऐ प्रिये तुम मिल गयी ऐसे
क्या बतलाऊँ मिली तुम कैसे
झरने सी तुम गिर रही हो
मेरे पत्थर दिल को चूम रही हो
कण कण अब मैं खुल रहा हूँ
तुझमें जाकर घूल रहा हूँ
ऐ प्रिये अब ले चल कहीं
वहाँ जहाँ सभी सो रहें हों
वहाँ जहाँ सब शून्य पड़ा हो
क्षितिज पर ले चल क्षितिज पर ले चल
वहाँ जहाँ आसमां धरती चूम रहा हो
ले चल- ले चल , ले चल - ले चल
ऐ प्रिये अब ले चल - ले चल।
~ राहुल सिंह
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें