कविताई

  1.                        आज के नेताजी 

एक थे नेताजी 
वो...'नेताजी' नहीं
ये थे 'आज के नेताजी ' 

इन्होने ने भी लड़ाई लड़ी 
लेकिन देश के लिए नहीं 
 वोट के लिए 

सत्ता में आने से पहले 
घोर भाषणबाजी की 
बिलकुल 'नेताजी' की तरह 
फर्क सिर्फ इतना था 
सच कम, झूठ ज्यादा था 

सत्ता में आने से पहले 
इन्होने घर-घर जाकर जूते  साफ किये ,
तलवे चाटें, हाथ-पांव जोड़े 
यहाँ तक की झाड़ू - पोंचा भी किया 

लेकिन सत्ता में आने के बाद 
सूद समेत वापस भी लिया 
यही है 'आज के नेताजी' की क्रिया। 

एक नगर में बम फटा 
और नेताओं ने हिदायत दी 
चल देख आएं नाक कटी 
नेताजी भड़के 
बोलें, अगर नगर में और बम हुआ तो ?
हम उड़ जायेंगे ज्यों धुँआ 

जब पांच साल ख़त्म होने को आया 
तब इन्होने अपनी क्रिया फिर दोहराई 
क्योंकि ये है 'आज के नेताजी' 


वो.… 'नेताजी' नहीं
                           _राहुल सिंह 
                 

२.                                       एक प्रश्न 

श्रम करना 
हमसे कहते हो 
और नीचे से 
टांग हमारी खींचते हो 

विद्या को 
हमसे ग्रहण करवाते हो 
और चुपके से 
हमारी विद्या को पैसे से तौलते हो 

नन्हे से तोते को 
आज़ादी की पाठ पढ़ाते हो 
और उसके फड़फड़ाते ही ,
पिंजरे की किवाड़, झट बंद कर देते हो

रँग -विरंगे फूलों को 
खिलने को कहते हो 
और उसके खिलते ही 
तोड़ पॉकेट में रख लेते हो  

बहती निर्मल नदियों को 
अपने घर आमंत्रित करते हो 
और उसके आते ही 
दूषित उसे कर देते हो 

मन में उठते सागर को 
बहार लाने को कहते हो
 और उसके आते ही 
किसी नाले में बह जाने देते हो 

नन्हे से गोताखोर को 
विराट सिंधु में गोता लगाने को कहते हो 
और उसके गोता लगाते ही 
मंझधार में छोड़, नौका ले चल जाते हो 

तुम्हारी यही द्विरंगी क्रियाएँ 
मेरे अंतः मन को विचलित करतीं हैं 
और मैं सोचता हूँ 
ऐसा क्यों तुम करते हो ? 

                                  ~  राहुल-सिंह

               
३.

                         फिर से निरंकुश बन जाऊँ 

मुन्ना 
जी करता है ,तेरे संग गुड़कियाँ लगाऊँ 
भागा -दौड़ी कर के गली में खूब शोर मचाऊँ 
दिन के सूरज चढ़ते ही, आम के बगीचे में घूस जाउँ 
कभी इस डाली तो कभी उस डाली 
कभी किसी के हाथ न आऊँ 

मुन्ना, जी करता है फिर से निरंकुश बन जाऊँ।।

दिन के सूरज ढलते ही, चंदू ,सोनू ,मोनू को भी 
घर -घर जाकर साथ में लाऊँ 
फिर किसी खम्भे की आड़ में 
झट से गिनती सौ तक गिन जाऊँ 
जब तक मम्मी -पापा न आएं 
तब तक वापस घर न जाऊँ 

मुन्ना, जी करता है फिर से निरंकुश बन जाऊँ।।

जब कभी भी बारिश हो
गली में उतरकर छपकियाँ लगाऊँ 
कॉपी के पन्नें फाड़कर 
पानी में कश्तियाँ दौड़ाऊँ 

मुन्ना, जी करता है फिर से निरंकुश बन जाऊँ।।

सुबह का सूरज जब निकले 
बस के हॉर्न कानो में गूंजे 
झट से मम्मी टिफ़िन भर लए 
तब पेट पकड़कर मैं खूब चिलाउँ 
स्कूल जाने से बच जाऊँ 
फिर तेरे संग गुड़कियाँ लगाऊँ 

मुन्ना, जी करता है फिर से निरंकुश बन जाऊँ।।

                                               ~ राहुल-सिंह 


                                                               

४.                           ग्राम-दृश्य       

देख बटोही 
यह सर्प बदन -सी बलखाती 
यह रत्नाकर -सम लहराती 
यह मखमल -सा कोमल पगडण्डी 
मेरे गाँव को जाती है । 

(तू आगे बढ़ )
(टन -टन )

ये  कर्ण भेदते मंगल-ध्वनि ,
मेरे ग्राम -सीमा पर स्थित ,
संकटमोचन मंदिर की ध्वनि है 
यह सव्च्छंद होकर बहती 
धरातल से फूटी जल स्रोत  की 
जल -धारा  है । 

त्याग संकोच ,देर न कर 
तू ये रस पी ले (क्योंकि )
यह जल धारा 'दिल्ली '  की यमुना 
और 'पटना 'की गंगा 
से उत्तम है । (तू पी ले)

(चल ,आगे बढ़ )

(लाओ ये सामान मुझे दे दो )

तू घबरा मत ,
तू संदेह  कर 
वे अपने ही गाँव के चाचा हैं ,

अब तू यह मत पूछ 
मेरा ,कहाँ ठिकाना है 
यहाँ पर सबका 
हर घर से रिश्ता -नाता है ॥ 





                                     -राहुल सिंह 

५                    एक यात्रा                     

लहरों की ललकार सुनकर मैं कूद पड़ा मंझधार में ,
लेकिन पटवार भूल आया मैं लोकसभा की दरबार में। 
लहरों से जितना है मुझे , बस यही था दिलो-दिमाग में ,
लेकिन मेरे पैर खड़े थे कागज़ के एक  नाव में। 

बार -बार हुंकार भरता , सागर उस काल में 
मेरे हौंसले की परीक्षा लेता अपने मदमस्त उछाल में 
दूर -दूर तक किनारा न था ,केवल सन्नाटा था उस काल में 
अपने ही आवाज़ को सुनता मैं ,छोटी सी अंतराल में ।
मेरे हौंसले पस्त न हुए , बढ़ता गया लहरों की उछाल में,
लेकिन मेरे पैर खड़े थें कागज़ के एक नाव में । 

 उसने अब आँधियाँ उठाए ,जैसे आंदोलन भारत देश में ,
प्रलयरूपी तांडव किया वो ,अपने संपूर्ण आवेश में । 
इतने से भी जब डिगा नहीं मैं ,मात खाया वह 
अपने हर चाल में ,
कुछ देर तक शांत रहा वो अपने ही 
अनंत विस्तार में । 

मेरी आँखे चमक उठीं , देखकर सुन्दर कलियाँ 
उसके कंटीले धार में ,
और मैं उलझता चला गया उसके 
इस मनमोहक जाल में । 

जबतक लेती कलियाँ मुझे अपने हसीं आगोश में ,
तब तक मुझे आभास हुआ की मेरे 
पैर खड़े हैं कागज़ के एक नाव में । 
                और 
उस माया जाल को तोड़ लौट आया मैं 
अपने कठिन राह में 
तभी हाथ जोड़े प्रकट हुआ सागर 
मेरे समक्ष में । 
बोला , इससे कठिन अड़चने नहीं हैं 
मेरे इस अनंत विस्तार में 
सफल हुए आप इस संसार के 
सबसे कठिन इम्तिहान में । 

लेकिन मेरे पैर खड़े थे। ……।। 

                                              -राहुल सिंह 

६                                  दोराहे 

आज इस जीवन यात्रा में 
खड़ा हूँ मैं दोराहे पर ,
एक तरफ है ,फूलों की बगिया 
तो दूसरी तरफ शूलों की शैय्या । 

महक उठती है फूलों की काया 
केवल सुहाने ऋतुराज में 
शुष्क रहती है इसकी रास नदियां 
बाकि के हर मास में । 

रीझ जाता है ये मन 
आकर्सित हो कर उन फूलों पर ,
फिर पछताता है अंत काल में ,
अपने  कार्यों पर । 

इतिहास गवाह है ,दिव्य-छवि मिली उन्ही को 
चलें है जो इन शूलों पर 
पार किया भौसागर को 
चढ़कर शूलों की नैया पर । 

जग उन्ही की जय करता है 
देखते नही जो क्षणभंगूरों पर ,
हे! अमर काव्य तू उनको पथ दिखा 
जो खड़े हैं इस दोराहे पर ॥ 

                                       -राहुल सिंह 

७.नन्हे हाथ 


ये नन्हे हाथ.… 

शहरों की गलिओं में ,
सड़कों की चौहाने पर 
स्वर्ण ढूंढते ये कोमल हाथ 

और.… 
स्वर्ण भस्म में लिपटे उनके गात 
जिसपर लदा रहता है, हरदम एक मोटरी साथ 

सिर्फ ये ही नहीं ,
लम्बे -लम्बे पलटफ़ॉर्म पर 
प्रातः भोर में ,
अधखुले आँख 
साथ में चाय की केतली 
पकड़े ,उनके ठिठुरते हाथ 

चीख -चीख कर कररही है 
आज़ाद हिंदुस्तान की हाल बयां । 


प्रायः 
किसी ढाबों में ,किराना दुकानों पर 
सख़्त पत्थरो के बीच दिख जातें हैं 
फूल से कोमल हाथ । 

यहाँ  तक की 
रंगीन पानी वाले घरों में 
 धुँआ से बने छतों के निचे 
अपने मालिक के इशारों पे नाचते 
दिख जाते हैं ये मासूम हाथ 

ये "चाचा नेहरू " के प्यारे हाथ 
आज चाह रहे हैं किसी का साथ ॥


_राहुल सिंह 

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