मिट्टी का सामान बनाना कितना मुश्क़िल?

दिवाली पर चीन का सामान नहीं खरीदना है । ज्यादा से ज्यादा हिंदुस्तानी, मिट्टी से बने चीजें खरीदनी है। इससे कुम्हारों की आमदनी में वृद्धि होगी, भारत का पैसा विदेश जाने से बचेगा, मिट्टी के सामान बनाने की कला को बढ़ावा मिलेगा आदि आदि । वैज्ञानिक रूप से भी मिट्टी के सामान का प्रयोग करना अच्छा है । इससे वातावरण को खतरा नहीं होता और तो और टूट जाने पर यह फिर से मिट्टी में आसानी से मिल जाता है । कई लेखों में इस बात पर भी ध्यान आकर्षित कराया गया कि बल्ब की रौशनी से कीड़े आकर्षित होते हैं, मरते नहीं हैं जबकि दीप की लौ में जलकर कीड़े-मकौड़े मर जाते हैं ।  यह हम सब जानते हैं कि फ़्रीजर में रखा पानी से अच्छा घड़ा का पानी पीना होता है लेकिन हम में से कितने लोग इसका पालन करते हैं । मिट्टी के वर्तन में पका व्यंजन का स्वाद शायद ही अब किसी को याद हो । दिवाली पर जो 'चीन की रौशनी' के बदले भारतीय दीया खरीदने की जो अपील की जा रही है इससे कितना मिट्टी के सामान के व्यापार में सुधार आयेगा इसे समझने की जरुरत है। क्या पहले भी कभी ऐसी अपील की गयी थी ? क्या उस समय किसी नेता, समाज सेवक, कवि, लेख़क को कुम्हारों का ख़्याल आया था जब बाज़ार में कुल्हड़ का स्थान चाइना कप, घड़ा का स्थान फ़्रीजर, दीया का स्थान भूकभुकवा झालर ले रहा था? ख़ैर समझने की बात यह है की ऐसी अपीलों से कुम्हारों की जिंदगी कितनी बेहतर हो पायेगी ? उनकी आमदनी में कितनी बढ़ोतरी होगी? चूँकि इन अपीलों से मिट्टी के सामान की मांग बढ़ेगी अतः वे पहले से ज्यादा दीये बेच पायेंगे, ज़्यादा सामान बना पायेंगे । राजनारायण जी इन बातों से इत्तफ़ाक़ नहीं रखते । राजनारायण एक कुम्हार हैं, वे 44 वर्षों से मिट्टी के सामान बना रहें हैं । वे बताते हैं कि उन्होंने ये कला अपने पिताजी से सीखी और 16 वर्ष की आयु से यह काम कर रहें हैं ।
   उनका कहना है कि पहले भी उनके पास काफ़ी  ऑडर आते थे और अभी भी आ रहे हैं लेकिन मुनाफ़ा उन्हें ज़्यादा नहीं होता। जयपुर में कलाकृति का बहुत बड़ा बाज़ार है। हैंडिक्राफ्ट के बड़े-बड़े दुकानों से उनके पास ऑडर आते हैं ।  हैंडीक्राफ्ट वाले उनसे बेहद मामूली रक़म में सामान ले जाते हैं, फिर उसकी रंगाई और पॉलिसिंग करके सैलानियों को मोटी रक़म में बेच देते हैं। लोग जो दिवाली पर दीये या अन्य सामान उनके पास ख़रीदने आते हैं वे भी बहुत मोल-जोल करते हैं भले ही बाद वे किसी दुकान पर जाकर दुगने दाम में ख़रीद लें।
पूछे जाने पर की जब इस धंधे में कमाई नहीं है फ़िर भी क्यों कर रहें हैं कहते हैं _
यह कहना ग़लत है की इस काम में मुनाफ़ा कभी नहीं था । एक थानेदार की तनख़्वा से भी ज़्यादा इससे कमाया जा सकता है बतरसे मिट्टी और लकड़ी मिल जाए । अब जंगल ज्यादा बचे नहीं, पहाड़ो पर जिधर अभी भी पेड़ है वहाँ से लकड़ी लाना मनाही है । जहाँ से पहले मिट्टी लाया करते थे अब उन जमीनों पर इमारतें खड़ी हो गयी है । कई जगहों पर सरकार ने पाबंदी लगा रखी है। कुल मिलाकर बात यह है कि उनके पास पर्याप्त मात्रा में मिट्टी और लकड़ी उपलब्ध नहीं है जो की उनके पेशा की बुनियादी जरुरत है ।
जो मिट्टी पहले मुफ़्त में उपलब्ध हुआ करती थी उसकी क़ीमत अब 5 हजार रुपये प्रति ट्रॉली है जबकि लकड़ी 6 रुपये किलो । एक छोटी भट्ठी जो की 5 फीट चौड़ी है और 3 फ़ीट गहरी में मिट्टी के सामान पकाने के लिए करीब 5 से 6 मन लकड़ी लगती है और इसमें में लगभग 3000 रुपये के ही सामान पक पाते हैं। फ़िर पकने के दरम्यान बहुत सामान जो टूट जाते हैं उनका घाटा बनाने वालों को ही सहना होता है।
चीन के सामान के विरोध के कारण या किसी सरकारी अभियान से हुए जागरूकता के कारण अगर ऑडर में आपार वृद्धि होती भी है तो भी इनके लिए ज़्यादा ख़ुशी की बात नहीं होगी क्योंकि उन ऑडर पूर्ति के लिए इनके पास पर्याप्त सामान उपलब्ध नहीं है ।
राजनारायण कहते हैं कि उन्होंने अपने बेटों को इसी वज़ह से यह कला नहीं सिखाया क्योंकि विकास के दौर में, भविष्य में "मिट्टी का कोई भविष्य नहीं है"...
                                                    © राहुल सिंह

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

*Aalaha-Udal*

खुद से लड़ाई