कहानियाँ

१.                    चनाचुरवाला (लघु-कथा)

दोपहर का समय, चिलचिलाती धूप, अचानक से आवाज़ सुनाई पड़ती   -

"चना बनाया चूर ,लाया इसे इतना दूर… "

मुन्ना अपने दादाजी को सोता देख धीरे से उनके बगल से उठता और फिर घर में पड़े प्लास्टिक की बोतले , टूटे  वर्तन आदि जो भी मिलता उसे उठाकर  नंगे पैर उस आवाज़ के पीछे दौड़ जाता। चनाचूरवाले के पास पहुंचकर अपने तोतले आवाज़ में बोलता-"बूढ़े दादाजी मुझे भी तनातुल दो न",और अपने हाथ में लाये हुए सामान उसे थमा देता। चनाचूर वाला प्यार से मुन्ना को समझाता-"बेटा मैंने कितनी बार तुझे बोला है की मैं प्लास्टिक की बोतलें, वर्तन आदि नहीं लेता फिर भी तू रोज ऐसी ही चीजें लता है, पैसे लाया कर पैसे " फिर मुन्ना के चेहरे पे उदासी देखकर कर  थोड़ा सा चनाचूर कागज में लपेट कर थमा देता और बोलता की ले जा बेटा तुझे खाता देख गावों के बाकि बच्चे भी चनाचूर खरीदने आएंगे लेकिन कल से पैसे जरूर लाना। इतना कहकर चनाचूर वाला आगे बढ़ जाता -

"चना बनाया चूर ,लाया इसे इतना दूर… "
मुन्ना रोज दोपहर में उसका इंतज़ार करता और आवाज़ सुनते ही घर से निकल जाता। कभी पैसे लेकर तो कभी टूटे फूटे प्लास्टिक के वर्तन तो कभी खाली हाथ ही लेकिन "बूढ़े दादाजी " उसे कभी निराश नही करते। 


मुन्ना अपने "बूढ़े दादाजी" का रोज इंतजार करता था। हर दिन की भांति मुन्ना आज भी "बूढ़े दादाजी" का इंतज़ार कर रहा था लेकिन आज कोई आवाज़ सुनाई नही दी ,मुन्ना बेचैन हो गया कभी वो घर के दरवाज़े पे जा कर झांकता  तो कभी छत पर चढ़कर दूर तक नज़रें दौड़ाता। इसी बीच दादाजी जाग गए ,मुन्ना को बेचैन देख वे बोले -क्यों मुन्ना आज चनाचूर नही मिला क्या ?मुन्ना को पता चल गया की उसकी चोरी पकड़ी गयी, वह दबी आवाज़ में बोला -आज आये ही नहीं। दादाजी मुस्कुराते हुए बोले आएगा कैसे ?बेचारा भरी दोपहरी में इतने दुर से चनाचूर बेचने आता है लेकिन ठीक से दो पैसे नहीं कमा पता। मुन्ना सोच में पड़ गया और मन ही मन अपने आप को दोस्ि मानने लगा।

बहुत दिन बीत गए पर चनाचूर वाला गावों में नहीं आया। मुन्ना उदास रहने लगा, मुन्ना की उदासी देखकर उसके दादाजी ने चनाचूर वाले के बारे में पता लगवाया। पता चला की वो बीमार है ,जवान बेटों ने बूढ़े दम्पतियों को अलग कर दिया है। बूढ़ा अपना और अपनी पत्नी के पेट भरने के लिए तेज दुपहरी में चनाचूर बेचता  है। मुन्ना के दादाजी ने चनाचूर वाले की मदद करनी चाही लेकिन वे भी अपने बेटे और बहु के डर से कर नहीं पाये। 

फिर एक दिन अचानक आवाज़ सुनाई दी -

"चना बनाया चूर ,लाया इसे इतना दूर… "

मुन्ना अचानक से उठा उसने घर के चारो ओर नज़रें दौड़ाई, उसे अलमीरा पर रखा माँ के हाथों का सोने के कंगन दिखाई दिए। वह उसे ही उठाकर दौड़ पड़ा, मुन्ना को कंगन ले जाते दादाजी ने देखा लेकिन रोकना मुनासिब न समझा। मुन्ना हांफता हुआ बोला -"बूढ़े दादाजी ये लो", सोने के कंगन देख चनाचूर वाले के आँखों में आंसू आ गए। वह मुन्ना को गोद में उठाते हुए बोला -"बेटा मुझे इसकी कोई जरुरत नहीं, ये सिर्फ मेरी  बीमारी ठीक कर सकता है लेकिन मेरे दिल पे लगे जख्मों पर मरहम नहीं लगा सकता"। उसने मुन्ना को मुट्ठी भर चनाचूर दिए और बिना बेचे ही चला गया। फिर उसके बाद कभी दिखाई न दिया …

                                                                                                   ~ राहुल -सिंह 


२.                         पेड़ा 

"अरे बेटा कितना दुबला हो गया है तु ? ले एक और पेड़ा  खा ले ", डॉक्टर साहब के लाख मना करने पर भी हलवाई दादी ने दो पेड़े उनके प्लेट में डाल दिए। इस पर डॉक्टर साहब थोड़ा खीजते हुए बोलें _दादी ये क्या कर रही है ?बार -बार मना करने के बाद भी तूने पेड़े प्लेट में डाल दिए। पता है तुझे  इनसब चीजों में कितना fat होता है ? गाँव में कुछ दिन और रहा तो मेरी  body का कबाड़ हो जायेगा। दादी ने प्यार से लालू के गाल पर हाथ फेरते हुए कहा _डॉक्टर क्या बन गया बड़ी-बड़ी बातें करने लग गया। याद नहीं तुझे कैसे बचपन में तु सुबह से शाम तक इस दुकान पर ही बैठा रहता था। यहाँ तक की खाना खाने भी घर नही जाता था। तुझे मेरे हाथ से ही खाना पसंद था इसीलिए तेरी दादी अक्सर खाना लाकर यहाँ रख जाती थी। और हाँ , आज जिस पड़े  लिए तु मना कर रहा है वो तो तुझे जान से भी प्यारा था। जब तक तेरा मन नही भर जाता था तब तक माँगते ही रहता था।
दादी की बातों में करुणा को भाँफते हुए डॉक्टर साहब ने कहा _ऐसी बात नही है दादी। तुझे पता है आज जब मैं इतने दिनों बाद गाँव में आया तो सबसे पहले अपनी दादी से तेरे बारे में ही पूछा, उन्ही से पता चला की अब दुकान इधर लग गयी है। इस बात को सुनकर दादी थोड़ा  करुण स्वर में  बोली _क्या करूँ बेटा कुछ दिन पहले ही हमें वह जगह खाली करनी पड़ी। अब वो जगह अपनी तो थी नहीं, लाला को कोई  उस जगह की ज्यादा पैसे देने को राजी है इसीलिए हमें  जगह खाली करनी पड़ी।सुना है उस जगह पर बड़ा मिष्ठान भंडार खुलने वाला है।  बेटा हमें तो अब यही चिंता खाई जाती है की उस मिष्ठान भंडार के खुलने के बाद हमारा क्या होगा ? एक तो वो जगह सड़क के बिल्कुल किनारे है, दूसरे उनकी दुकान हमसे काफी बड़ी होगी और तीसरे में कारीगर शहर के होंगे ऐसे में तु ही बता बेटा हमारा मिठाई कौन खाने आएगा ?वर्षों से हम इसी दुकान से तो गुजर -बसर करते आ रहे है। खेती -बाड़ी करने के लिए उतनी जमीन भी नहीं। गरीबी के वज़ह से ना कोई बेटा पढ़ पाया और ना ही कोई पोता, मेरी तो अब उम्र भी हो चुकी है।
दादी की इन बातों ने डॉक्टर साहब को भी झकझोर कर रख दिया। उन्होंने दादी से कहा _दादी तु  चिंता मत कर, तेरी दुकान कभी बंद नही होगी। मैं भी शहर में ही रहता हुँ और वहाँ की मिठाई खाने को बिलकुल मन नही करता, हर चीज़ मिलावटी लगती है। शहर से गाँव मैं तुम्हारे हाथों से बने समोसे ,पेड़े और वो ख़ास सरसों वाली चटनी जो सिर्फ तु  ही बनाती है खाने ही आया हूँ। दादी तु  जानती नही तु  कितनी बहादुर है? तेरे से अच्छे हालात वाले लोग शहर में  काम छोड़कर भिख माँगना शुरू कर देते हैं। वे लोग हालात से लड़ना नही जानते और तु तो अपने जीवन में इससे बुरे दिन देख चुकी है फिर  क्यों व्यर्थ चिंता करती है। देखना एक दिन तुम्हारी मेहनत और लगन देखकर वे लोग ही अपना दुकान बंद कर लेंगे।
कुछ दिन बाद लाला के दिए जगह पर मिष्ठान भंडार खुल गया। दादी पहले से ज्यादा मेहनत करने लगी ,पहले से ज्यादा प्रकार की मिठाईंयाँ बनाने लगी। डॉक्टर साहब दादी की मदद करना चाहते थे लेकिन उन्हें समझ नही आ रहा था कैसे? एक रोज शाम को किसी ने डॉक्टर साहब के घर का दरवाज़ा जोर से पिटा, दरवाज़ा खोल कर देखा तो हलवाई दादी का बड़ा पोता गुड्डू हाँफ़ रहा था। उन्हें पता चला की दुकान पे काम करते वक़्त कड़ाही की गर्म तेल दादी के ऊपर गिर गया। डॉक्टर साहब ने फ़ौरन दादी को अपने ओहदे का इस्तेमाल कर अच्छे अस्पताल में भर्ती करवाया,  जितनी  छुटियाँ बची थी उसे दादी की सेवा में ही गुजार दिए। कुछ दिनों बाद दादी के स्वस्थ्य में असर दिखने लगा ,दादी पहले से स्वस्थ्य हो चुकी थी, डॉक्टर साहेब की छुटियाँ भी ख़त्म होने को ही थी। दादी से मिलकर डॉक्टर साहेब शहर वापस लौट गए ,पूर्णरूप से ठीक होने के बाद दादी फिर से उसी लगन के साथ मेहनत करने लग गयी। उसे अपने लालू की कही एक-एक बातें याद थी ,मन ही मन हर पल अपने जीवन भर के पुण्य को आशीष बना कर डॉक्टर साहब को दुवाएं देती रहती। खूब मेहनत करती और ख़्वाहिश रखती की लाला की बड़ी दुकान एक दिन  नाम कर लेगी। कुछ महीने बाद दादी के नाम एक लिफ़ाफ़ा आया, दादी ने अपने दुकान पर बैठे एक पढ़े-लिखे आदमी से लिफाफा खुलवाया। लिफाफे के अंदर कुछ जमीन के कागज़ थे और उसके साथ एक चिट्ठी। उसपे लिखा था.…

दादी अब से पेड़े खाने बड़े दुकान में ही आऊंगा।।

                                                                           ~  राहुल -सिंह 

 ३.               बलि 

आज सुबह से ही देवलोक में व्यस्तता नजर आ रही है। खास कर चित्रगुप्त बहुत व्यस्त नजर आ रहे हैं, वे सुबह से ही फाइलों में कुछ ढूँढने की कोशिश कर रहे है। अब तक न जाने कितने फाइलों को उन्होंने उलट -पलट दिया लेकिन सफलता नही मिली। अभी वे अपनी थकान मिटाने के लिए बैठें ही थे की 'नारायण -नारायण ' करते वहां नारद मुनि पहुँच गये। चित्रगुप्त के मस्तिक पर उदासी की लकीरों को भाँफते हुए उन्होंने उदासी का कारण पूछा। चित्रगुप्त बड़े ही धीमी आवाज़ में बोले की त्रिदेवियों  (लक्ष्मी ,पार्वती एवं सरस्वती ) ने उन्हें इस नवरात्र के अवसर पर दुर्गा के सबसे बड़े भक्त के बारे में पता लगाने को कहा है लेकिन अभी तक कोई ऐसा न मिला जिसे सबसे बड़े भक्त का ख़िताब दिया जा सके। यह सुनकर नारद मुनि मुस्कुराये बोलें -बस इतनी सी बात ?गूगल बाबा पर सर्च कर लेते। चित्रगुप्त के चेहरे पर हैरानी देखकर उन्होंने अपने पॉकेट से एंड्राइड फ़ोन निकाला फिर चित्रगुप्त को दिखाते हुए बोले की ये लेटेस्ट टेक्नोलॉजी है ,इसमें  गूगल है जिस पर सर्च करने पर हमें यह पता चल जायेगा की कौन से  क्षेत्र में सबसे ज्यादा भक्ति की जाती है। फिर आप उस क्षेत्र का फाइल निकाल कर भक्त का नाम, पता आदि निकाल लेना। जब नारद मुनि ने सर्च किया तब काशी  का नाम पहले आया, फाइलों को खंगालने का काम शुरू हुआ। अभी कार्य प्रगति पर ही था की अचानक से आवाज़ गूंजी  -

"या देवी सर्वभूतेशु शक्ति रूपेण.......  "

आवाज़ के स्रोत का पता लगाया गया ,पता चला की ये काशी  के एक बहुत बड़े पंडित के यहाँ से आ रही है। अब चित्रगुप्त का काम और आसान हो गया, कुछ औपचारिक कार्यों को पूरा कर के पंडित का नाम फाइनल कर दिया गया और पंडित का नाम, पता त्रिदेवियों को सौंप दिया गया। अब तीनो देवियों ने निर्णय लिया की वे खुद नवें दिन  उस पंडित से जाकर मिलेंगी । किसी के पहचान में न आये इसीलिए वे तीनो नृत्यकी का रूप धारण कर काशी पहुँच गयीं। त्रिदेवियों को जाता देख त्रिदेव भी अपना वेश बदलकर काशी पहुँच गए। 
उधर दुर्गा माँ के महान भक्त 'पंडित' ने अपने चेलों से ये आग्रह किया की नवरात्र के नवे रात्रि को माता का जागरण रखा जाए। भक्तजन जागरण हेतु नृतकियों की तलाश करने लगे तभी  उन्हें जानकारी मिली की आज ही एक नयी जागरण कम्पनी की स्थापना हुई है। भक्तों ने भी सोंचा की इस बार नयी बालाओं के नृत्य का ही आनंद लिया जाये। शाम के आठ बजे जागरण शुरू किया गया 
शिवजी ने गाना आरम्भ किया -

"ये माँ का जागरण है …"

उनके गाने पर तीनो देवियाँ थिरक रहीं थीं ,विष्णु और ब्रह्मा वाद्य यंत्र बजा रहे थे। जैसे -जैसे समय बीतता गया पंडितजी नृतकियों पे मुग्ध होते गए। पंडितजी मन ही मन अपने अनुयाइयों को शाबाशी दे रहे थे। कुछ समय और बिता, एकाएक पंडितजी ने ये घोषणा कर दिया की अब गाना हम बजायेंगे। गाना बजा -
"माय नेम इज शीला ,शीला की जवानी...."
उन बालाओं को खड़े देख पंडित जी चिलायें -'अरे नाच …नाचती क्यों नहीं। तभी पार्वती ने जबाब दिया की हम ऐसे गानों पे नृत्य नही करतीं। पंडितजी जी पुनः चिलाकर बोलें -लेकिन हम तो देखते हैं और ये हमारे यहाँ की प्रथा है। बात आगे बढ़ता की उधर से एक भक्त भागते हुए आया और बोला -
पंडितजी १२ बजने में बस एक मिनट ही बाकि है ,चलिए पहले बकरे की बलि दुर्गा माँ को दे दी  जाये फिर उधर बकरा पकता रहेगा और इधर जागरण चलता रहेगा। तभी एक भक्त बकरे को खींचता हुआ पंडितजी के पास लाया। बकरा बहुत चीख रहा था ,विष्णु की नज़र बकरे पर पड़ी और उनकी आँखे खुली की खुली रह गयी। दरअसल बकरे के वेश में कोई और नही नारद मुनि थें। पंडितजी ने मंत्रोचारण शुरू किया नारदजी को माला पहनाया गया, तिलक लगाया गया। सारे विधि  पूर्ण किये गए.कसाई को बुलाया गया। अब नारद मुनि की  बलि लगभग तये थी तभी विष्णु जी मंच से नारद मुनि को बचाने उतर आये और चिला कर बोले "पंडितजी पहले हमारे बाकि के पैसे दे दीजिये हम से इस तरह के नृत्य नहीं होंगे। इतना कहना था की पंडितजी एवं उनके चेला विष्णु से उलझ गए, उधर शिवजी ने मौके का फायदा उठाकर नारद मुनि को फंदे से आज़ाद करा दिया। नारद मुनि को भागता देख पंडितजी उसके पीछे भागे और उनके पीछे उनके चेले।मौके का फायदा उठाकर त्रिदेव तीनो देवियों के साथ नौ दो ग्यारह हो गए। 
देवलोक पहुचने के बाद नारदजी ने कहा- 

"माते आपके भक्तों का जबाब नहीं।एक ओर तो नारी शक्ति की पूजा करते हैं तो दूसरी ओर उन्हें बेआबरू करने की पूरी कोशिश करतें हैं। हर जीव आपको प्यारा है ,ये जानते हुए भी बलि जैसे कुप्रथा को बढ़ावा देतें हैं "    

                                                                        ~  राहुल सिंह 


४                          रामरूप मेहता : अद्भुत योद्धा 

बिहार के अखबारों से इस वक्त नीतीश कुमार एवं जीतनरम माँझी के जोड़-तोड के खबरों के अलावा एक बहुत ही रोचक खबर आ रही है, वो है बिहार राज्य की फिल्मी दुनिया के इतिहास मे पहली बार मगही भाषा मे बनने जा रही फ़ीचर फिल्म "अजगुत जोधा"| इससे पहले केवल भोजपुरी एवं मैथिली भाषा मे ही फिल्मे बनती आ रहीं थी| यह फिल्म चर्चा मे इसलिये भी है क्योंकि इस फ़ीचर फिल्म की कहानी एक क्रांतिकारी एवं सामाजवादी नेता 'रामरूप मेहता' के जीवन के इर्द-गिर्द घूमेगी| जब की अभी तक भोजपुरी फ़ीचर फिल्मों के निर्देशक केवल "मशाला" ही पर्दे पर परोसते आ रहे है| समीक्षकों का मनना यह है की इससे बिहारी फिल्मों को एक नई दिशा मिलेगी|

 फिल्म की कहानी एवं रामरूप मेहता का लघु जीवन दर्शन:

"रामरूप मेहता" मगध के बेहद लोकप्रिय सामाजवादी नेता थे|बिहार राज्य के औरंगाबाद ज़िला के बिरहरा गाँव के  एक किसान परिवार मे जन्मे मेहता जी अपने तीनो भाइयों मे सबसे बड़े थें| माता के गुजर जाने के बाद अपने पिताजी के जिम्मेदारियों को खुद लेते हुए अपनी पढ़ाई जारी रखी| स्कूल के दिनो मे ही लेलिन एवं मार्क्स को पढ डाला| बाद मे विनोवा भावे एवं जाप्रकाश नारायण के विचारों से प्रभावित होकर उनसे जुड़ गये| जननायक कर्पुरी ठाकुर से भी उनके अच्छे सम्बंध रहें, सर्वोदया आन्दोलन मे भी बढ चढ कर हिस्सा लिये| सर्वोदया आन्दोलन से वे इतने प्रभावित थें की उन्होने अपने बड़े बेटा का नाम सर्वोदया रख दिया| उनकी लोकप्रियता को देखते हुये कांग्रेस ने उन्हे टिकट देनी चाही लेकिन उन्होने टिकट लेने से साफ मना कर दिया| एक किसान के बेटे की लोकप्रियता को गगन चूमते देख लोगों को ईर्ष्या होने लगी| चूंकि रामरूप मेहता की पहुंच राजनैतिक से लेकर प्रससनिक गालियों तक थी इसी वजह से भैरव सिंह नमक डाकू जो की उन्ही के घर के समीप अपने बहनोई के यहाँ रहता था, अपने हिंसक कार्यों को संपन्न करने से डरता था| अतः वह किसी भी प्रकार से मेहता जी को अपने रास्ते से हटाना चाहता था| और एक दिन उसने अपने साथियों के साथ षड्यंत्र करके जब वे अकेले अपने खेत का मुआइना कर रहे थे गोली मरकर हत्या कर दिया| हालांकि हत्या करके भागते डाकुओं को निहत्थी जनता ने मौके पर ही पिट-पिट हत्या कर दी परंतु एक ओजस्वी एवं समाजवादी नेता कही खो गया| उनकी ख्याति मगध तक ही सिमट कर रह गयी|
"अजगुत जोधा" फिल्म के बनने से बिहार के फिल्मों के साथ-साथ "रामरूप मेहता" के पहचान को भी एक नयी दिशा मिलेगी|

                                                                                  :-राहुल सिंह 

५       यादें … बचपन की-I

इसमें कोई शक नहीं की जीवन का सबसे हसीं लम्हा बचपन ही होता है । जब भी आपका मन उदास हो तो  आप अपने बचपन के दिनों को याद करें ,मन अपने आप खुश हो जायेगा । बचपन है ही ऐसा । हर किसी की अपने -अपने बचपन की यादें होंगी ,मेरी भी हैं ,उनमे से कुछ रोचक यादों को यहाँ लिपिबद्ध करने जा रहा हूँ । 


 पिट्टो (stacks of seven stones) गिरना था । हमारे टीम के एक लड़के ने पिट्टो गिरा दिया फिर हम सब खेल के नियम के मुताबिक विपक्षी टीम के गेंद के प्रहार से बचने के लिए इधर -उधर भागने लगें । एक लड़के ने गेंद मारा और गेंद किसी को छुए बिना पिट्टो से दूर जा कर गिरा । मौके का फायदा उठाकर मेरा भाई पत्थरों को एक के ऊपर एक सजाने लगा तभी एक लड़के ने तेजी से गेंद मेरे भाई की ओऱ फेंका लेकिन गेंद मेरे भाई के लगे बिना ही पास के एक कुँए (बावड़ी ) में जा गिरी । गेंद मेरे एक जिगरी दोस्त का था । गेंद कुएं में गिर जाने  वो रोने लगा । मैं भी वात्सल्य हृदय ,मुझे उस पर दया आगयी । जिस लड़के ने गेंद मरी थी उसे मैंने अपने दोस्त की गेंद लौटने को कहा लेकिन वो उ मुझे अपने नानी घर रहना बहुत पसंद था ,अभी भी है लेकिन उस समय कुछ ज्यादा ही था और हो भी क्यों ना बचपन का समय था और   वहां मुझे मेरे हर शरारती काम में साथ देने वाला  मेरा ममेरा भाई जो था ।  एक बार की बात है मैं और मेरा ममेरा भाई जिसका की नाम प्रिंस है, गाँव के लड़को के साथ 'पिट्टो ' खेल रहे थें । एक और खास बात हमदोनो भाई हमेसा एक ही टीम में रहते थें चाहे कुछ भी हो जाये । खेल जारी था ,हमारी टीम को गेंद से मारकरल्टा मेरे से हीं उलझ गया और गलती मेरे भाई की बताने लगा । मामला हाथापाई पे आ गयी और अचानक धक्के के कारण वो लड़का कुँए में गिर गया । बाकि के लड़के शोर मचाने लगें ,गाँव के लोग इक्कठे हुए । गाँव के हीं एक व्यक्ति उसे बचाने के लिए कुंएं में कूद गए । इधर मौका देखकर मैं और मेरा भाई वहां से बाज़ार की ओर खिसक लियें और जान बुझ कर बाज़ार में खूब देर लगाएं की तब तक मामा का गुस्सा शांत हो जाये । शाम को हम घर आएं तो मामा ने हमारी खूब खबर ली लेकिन बाज़ार में बिताये वक्त काम आया और हमें मामा का ज्यादा गुस्सा झेलना न पड़ा.…। ॥ 


                                                                         -राहुल सिंह

६                     यादें.... बचपन की -II

इसके पहले भाग में मैंने अपने बचपन के दिनों के एक रोचक घटना का उल्लेख किया था । इस भाग में एक और घटना का उल्लेख करने जा रहा हूँ । 

गाँव में हमारी दोस्तों की मंडली हुआ करती थी ,जिसे लोग बच्चा पार्टी बुलाया करते थे । हमारी मंडली की खास बात यह थी हम अपनी जरूरतों को स्वयं पूरी करने में सक्षम थे । हमारी जरूरतें जैसे गेंद ,लकड़ी का बल्ला ,विकेट कभी -कभी मिथुन दा ,अजय देवगन ,अक्षय कुमार की मार -धाड़ से भरपूर फिल्मों को देखने के लिए V.C.R आदि । हमारी पार्टी तब सक्रिय होती थी जब गाँव में किसी के घर कुछ काम चल रहा हो ,जैसे जब किसी के यहाँ फर्नीचर का काम चल रहा होता था तब हम बल्ला ,विकेट बनवाने पहुंच जाया करते थे । जब कही किसी के खेत में धान की बुवाई होती थी तो हम धान मांगने पहुंच जाते थे। धान ना मिलने पे गाते थें -

                                       "आल -आल बकरी ,तुम्हारा सब धान खखरी "

और तब तक गाते थे जब तक हमें धान मिल न जाये। और धान इकट्ठा करके दुकान में जा कर बेच आते थें। धान के बदले मिले पैसों को अपने पार्टी फण्ड में रख देते थें और जरुरत पड़ने पे उसे खर्च करते थें। 

जब कहीं इंट का भट्ठा लगता था तो हम वहां भी पहुँच जाते थें। कच्ची इंट बनाने एवं सुखाने में हम से जितना बन पाता हम करतें थें । जब इंटों को पकने के लिए छोड़  दिया जाता था तब हम अपना हक़ मांगने पहुँच जातें थे और उनसे पैसों की मांग करतें थें। पैसे मिल जाने पर फिर गाना गाते थें -

                        "मसूरी के दाल ,भट्ठा लाल-लाल "

हमसे ये तुकबंदी सुन कर भट्ठा के मालिक खुश हो जातें थें …… 








७   बातें  बड़ी -बड़ी 

स्टेशन पर काफी भीड़ थी। यात्री प्लेटफम पर ट्रेन का इंतजार कर रहे थे। तभी घोषणा हुई “यात्रीगण कृप्या ध्यान दे। जयपुर से अहमदाबाद को जाने वाली आला-हजरत एक्स्प्रेस कुछ ही समय मे प्लेटफर्म संख्या 4 के बजाए 3 पर आ रही है। आपकी असुविधा के लिये हमे खेद है”।
यह सुनकर लोग प्लेटफार्म संख्या 3 कि ओर तेजी से बढने लगे। कुछ समय के बाद ट्रेन भी वहाँ पहुंच गयी। लोग शिघ्रता से उस पर चढने का प्रयास करने लगे। मै भी बहुत दिक्कतों के बाद रिजर्वेशन अनुसार कोच संख्या 6 में चढ पाया। रिजर्वेशन कोच में भी काफी भीड़ थी। जेनरल कोच में पर्याप्त जगह न होने के कारण लोग शयनयान कोच में आ गए थे। मेरे सीट पर भी पहले से चार व्यक्ति बैठे हुए थे। मैंने उनसे हटने का आग्रह किया। उनलोगो ने मुझसे कहा कि उन्हे अगले स्टेशन



तक ही जाना है मैं इसी मे ही एडजस्ट कर लूँ । उन से जोर जबरदस्ती का कोइ फायदा न था अत: मै भी किसी तरह उनके बीच घुस कर बैठ गया और टी.टी.ई का इंतजार करने लगा। अब ट्रेन भी चल पड़ी थीलोग भी स्थिर हो चुके थे। मेरे पास बैठे लोग किसी विषय पर चर्चा कर रहे थे। विषय काफी गंभीर जान पड़ रहा था। मेरे पास भी करने को कुछ नही था। खाली बैठ टी.टी.ई का इंतजार करने से अच्छा था कि उनकी बातो मे दिलचस्पी ली जाए। थोडा  ध्यान देने पर पता चला कि बाते वाकइ गंभीर मुद्दे पर हो रही है।
पहला व्यक्ति:- भाईपता नहीं  इस देश का क्या होगाइतने वर्षो तक कांग्रेस मुर्ख बनाते आई और अब भाजपा। चुनाव से पहले मोदी जी ने जो वायदे किए थे उनमे से तो कोई पूरा होते दिखाई न दे रहा है। न काला-धन आया और न ही खाते मे 15 लाख रुपये। ह ह ह (हसते हुए) अरे वो अपने गाँव के कैलाश जी बेचारे सप्ताह मे दो-तीन दिन तो बैंक के चक्कर तो काट ही आते थे। बडा विश्वास था उन्हे। कितना खुश हुए थे जब काला-धन जमा करने वाले कुछ व्यक्तियो का नाम सामने आया था लेकिन उसे जुमला बताकर साह’ जी ने दिल तोड़  दिया। मोदी जी तो कभी "स्वच्छ भारत" तो कभी "मेक इन इंडिया" का नौटंकी





करने मे लगे है। मुझे तो लगता है कि अच्छे दिन केवल उन्ही के आए है। जब से प्रधानमंत्री बने है घुम ही रहे है।
दुसरा व्यक्ति :- ए लो कर लो बात। "स्वच्छ भारत" और "मेक इन इंडिया" मे क्या नौटंकी हैअपना घरमुहल्ला को साफ रखना गलत है क्याप्लेटफार्म  पहले  से कितना साफ रहने लगा है। सरकारी बाबू लोग भी आफिस समय पर आने लगे है। और मेक इन इंडिया से भी तो अपने देश का भला होगा। देश का पैसा देश मे ही रहेगा।
तीसरा व्यक्ति:- चल मान ली थारी बात लेकिन इनसब चीज़ो से हम किसान भाइयो को के फायदा होये हैहम कौन से फसल विदेश मे जाकर उगा रहे हैहमरी गेहूँदाल… भी तो 'मेक इन इंडिया' से लेकिन मारे को तो पहले से ज्यादा मुनाफा न मिले है। पहले जैसे गेहूँबिक रहे से अब भी वैसे ही बिके से।
चौथा व्यक्ति:- बिल्कुल ठीक कहा आपने। कोई भी पार्टी हो इनके सिर्फ नाम ही अलग हैं अंदर से सब एक जैसे है। (तभी दूसरे व्यक्ति ने बिस्कीट का पाकेट फाड़ कर सब कि ओर घुमाते हुए बिस्कीट लेने का आग्रह किया)। “आप” पर भरोसा किया था लेकिन वो भी इन दिनो अपने ही मंत्रीयो से परेशान है...

यही सब बातें चल रही थी कि टी.टी.ई महोदय वहाँ आ गए। उन्होने सभी से अपना- अपना टिकट दिखाने को कहा। उन चार व्यक्तियो मे से दो के पास टिकट जेनरल कोच का था। टि.टि.ई ने उनसे penalty भरने को कहा इस पर वे लोग प्लेटफार्म परिवर्तन का हवाला देते हुए कहने लगे कि वे जल्दीबाजी मे sleeper कोच मे चढ गये अगर वे ऐसा नही करते तो वे ट्रेन पर नही चढ पाते। टी.टी.ई ने उनका टिकट देखते हुए कहा कि देखिये आपलोगो कि जेनरल कि टिकट फालना तक का है जो कि अभी बहुत दूर है। अभी से लगभग पांच घण्टे तो लग ही जायेंगे अगर आप यू हि यहाँ बैठे रहे तो जिनकी रिजर्वेशन है उनलोगो को सोने मे दिक्क्त होगी आप चाहे तो फालना तक कि कुछ सीटे खाली है मै उसका टिकट बना देता हु आपलोगो को मात्र 200-200 रुपए और देने होंगे। ईस पर उनमे से एक व्यक्ति बोला-

साहब हम लोगो के पास इतने पैसे नही है आप हम सब से कूल मिलाकर २०० ले लिजिए भले हि टिकट न दिजिए। कुछ और बात-चीत के बाद टी.टी.ई साहब भी मान गए फिर क्या था उनमे से एक व्यक्ति ने झट से बिस्कीट का packet एक कोने मे फेका और वे दोनों  टी.टी.ई के पीछे-पीछे चल दिए। 
            

            ~ राहुल सिंह 

      

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