*Aalaha-Udal*

                                             आल्हा-ऊदल

इतिहास हमेंशा शासकों द्वारा ही लिखा गया है। राजा-महाराजा शिलाओं पर, गुफ़ाओं में, भोजपत्रों पर अपने और अपने वंश के बारे में लिखवाया करते थें। हर दरबार में राज कवि, लेख़क, चित्रकार आदि हुआ करते थें। लेखक, कवि आदि राज के प्रशंसा में कविताएँ एवं कहानियाँ गढ़ा करते थे इससे राजा खुश होकर उन्हें कीमती उपहार दिया करते थे। राजा की आलोचना न करने में लेखकों का हमेशा राजमहल के सुख भोगने एवं राजा के प्रसंसा के पात्र बने रहने का स्वार्थ निहित रहता था।  ऐसे लेखकों, कवियों, चित्रकारों को चाटुकारिता के जनक कहना गलत नहीं होगा। ऐसे ही  लेखकों, कवियों के कारण जनमानस की पीड़ा शासक तक नहीं पहुँचती। भले ही उनकी भाषा शैली कितनी ही अच्छी क्यों न रही हो, भले ही उन्होंने लेखन में नयी विधा की खोज की हो, भले ही वो भाषा/व्याकरण के महान ज्ञाता माने जाते हों, संस्कृत के प्रकांड पंडित हों, पिण्डलाचार्य कहे जाते हो अगर वे जनमानस की पीड़ा को नजरंदाज करके केवल राजा की प्रसंसा करने में लगे रहें तो उनकी रचना चाटुकारिता के सबूत के अलावा कुछ नहीं समझा जायेगा। चाहे वह लेखक चंदवरदाई या पद्मावत के रचयिता 'मलिक मुहमद जयसी' ही क्यों न हो।  
विश्व भर में भोग-विलास परस्त शासकों की कमी नहीं रही है। प्रजा से मुख मोड़कर प्रणय में लीन राजाओं को अपनी झूठी प्रशंसा सुनना बेहद पसंद था इसके लिए वे हमेंशा अपने बगल में कवि एवं लेखकों की मंडली रखा करते थें। वे जानते थें की वही इतिहास के सृजनकर्ता हैं वे जैसे चाहेंगे इतिहास वैसे ही लिखा जाएगा, भले ही वे आज की जनता द्वारा कैसे भी समझे जाते हों लेकिन भविष्य का मानव जब इतिहास पढ़ेगा तब वह विश्व में एक महान शासक के रूप में जरूर याद रखा जाएगा। विद्या की हमेंशा बोली लगी है, विद्या हमेंशा से शासकों की रखैल  रही है। जो लेख़क, कवि, चित्रकार, कलाकार आदि झुकें नहीं बिक़े नहीं वे योग्यता समेत इतिहास से गायब कर दिए गए। अलहा और ऊदल जैसे योद्धाओं के आज लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं है इससे बड़ा भला इस बात की प्रमाण और क्या हो सकता है की इतिहास हमेंशा शासकों द्वारा ही लिखा गया है।

"बुंदेलखंड की वीर भूमि महोबा और आल्हा एक दूसरे के पर्याय हैं। महोबा की सुबह आल्हा से शुरू होती है और उन्हीं से खत्म। बुंदेलखंड का जन-जन आज भी चटकारे लेकर गाता है-
बुंदेलखंड की सुनो कहानी बुंदेलों की बानी में 
पानीदार यहां का घोडा, आग यहां के पानी में
महोबा के ढेर सारे स्मारक आज भी इन वीरों की याद दिलाते हैं। सामाजिक संस्कार आल्हा की पंक्तियों के बिना पूर्ण नहीं होता। आल्हा खंड से प्रभावित होता है। जाके बैरी सम्मुख ठाडे, ताके जीवन को धिक्कार । आल्हा का व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था कि 800 वर्षो के बीत जाने के बावजूद वह आज भी बुंदेलखंड के प्राण स्वरूप हैं। आल्हा
आल्हा गायक इन्हंे धर्मराज का अवतार बताता है। कहते है कि इनको युद्ध से घृणा थी और न्यायपूर्ण ढंग से रहना विशेष पसंद था । इनके पिता जच्छराज (जासर) और माता देवला थी। ऊदल इनका छोटा भाई था। जच्छराज और बच्छराज दो सगे भाई थे जो राजा परमा के यहाॅ रहते थे। परमाल की पत्नी मल्हना थी और उसकी की बहने देवला और तिलका से महाराज ने अच्छराज और बच्छराज की शादी करा दी थी। मइहर की देवी से आल्हा को अमरता का वरदानल मिला था। युद्ध में मारे गये वीरों को जिला देने की इनमें विशेशता थी। लाार हो कर कभी-कभी इन्हें युद्ध में भी जाना पड़ता था। जिस हाथी पर ये सवारी करते थे उसका नाम पष्यावत था। इन का विवाह नैनागढ़ की अपूर्व सुन्दरी राज कन्या सोना से हुआ था। इसी सोना के संसर्ग से ईन्दल पैदा हुआ जो बड़ा पराक्रमी निकला। शायद आल्हा को यह नही मालूम था कि वह अमर है। इसी से अपने छोटे एवं प्रतापी भाई ऊदल के मारे जाने पर आह भर के कहा है-
पहिले जानिति हम अम्मर हई,
काहे जुझत लहुरवा भाइ ।"
(कहीं मैं पहले ही जानता कि मैं अमर हूँ तो मेरा छोटा भाई क्यों जूझता)

ऊदल

यह आल्हा का छोटा भाई, युद्ध का प्रेमी और बहुत ही पतापी था। अधिकांष युद्धों का जन्मदाता यही बतलाया जाता है। इसके घोड़े का नमा बेंदुल था। बेंदुल देवराज इन्द्र के रथ का प्रधान घोड़ा था। इसक अतिरिक्त चार घोड़े और इन्द्र के रथ मंे जोते जाते थे जिन्हंे ऊदल धरा पर उतार लाया था। इसकी भी एक रोचक कहानी है। - ‘‘कहा जाता है कि देवराज हन्द्र मल्हना से प्यार करता था। इन्द्रसान से वह अपने रथ द्वारा नित्ःय र्ही आ निषा में आता था। ऊदल ने एक रात उसे देख लिया और जब वज रथ लेकर उ़ने को जुआ, ऊदल रथ का धुरा पकड़ कर उड़ गया। वहां पहुंच कर इन्द्र जब रथ से उतरा, ऊदल सामने खड़ा हो गया। अपनल मार्यादा बचाने के लिए इन्द्र ने ऊदल के ही कथ्नानुसार अपने पांचों घोडे़ जो उसके रथ में जुते थे दे दिये। पृथ्वी पर उतर कर जब घोड़ों सहित गंगा नदी पार करने लगा तो पैर में चोट लग जाने के कारण एक घोड़ा बह गया। उसका नाम संडला था और वह नैनागढ़ जिसे चुनार कहते है किले से जा लगा। वहां के राजा इन्दमणि ने उसे रख लिया। बाद में वह पुनः महोबे को लाया गया और आल्हा का बेटा ईन्दल उस पर सवारी करने लगा।
ऊदल वीरता के साथ-साथ देखने में भी बड़ा सुनछर था। नरवरगढ़ की राज कन्या फुलवा कुछ पुराने संबंध के कारण सेनवा की षादी मं्रंे नैनागढ़ गयी थी। द्वार पूजा के समय उसने ऊदल को दख तो रीझ गयी। अन्त में कई बार युद्ध करने पर ऊदल को उसे अपनल बनाना पड़रा। ऊदल मं धैर्य कम था। वह किसी भी कार्य को पूर्ण करने के हतु शीघ्र ही शपथ ले लेता था। फिर भी अन्य वीरों की सतर्कता से उसकी कोई भी प्रतिज्ञा विफल नही हुई। युद्ध मंे ही इसका जीवन समाप्त हो गया। इसका मुख्य अस्त्र तलवार था।

"आल्हा गाने वाले आल्हा और पिथौरा राज यानी पृथ्वीराज चौहान के बीच हुए युद्ध के बारे में भी सुनाते हैं। कहानी यह है की आल्हा और ऊदल महोबा से निकाले जाने के बाद वहाँ कभी न जाने का प्रण किया था। इस मौके को देख महोबा का ध्रूत सेनापति 'माहेल' ने यह ख़बर दिल्ली जाकर पृथ्वीराज चौहान को सुनाई और वह उसे यह कहकर उकसाने में कामयाब हो गया की महोबा में राजकुमार 'नरब्रम्हा' अकेला है, आल्हा-ऊदल के निकाले जाने के बाद महोबा पर विजय पाना आसान हो गया है, महोबा जीतने के बाद वह वहां की राजकुमारी 'चंद्रावल' का वरन करने में कामयाब हो सकता है। यह सुनते ही पृथ्वीराज चौहान ने महोबे पर आक्रमण करने का आदेश दे दिया साथ ही महोबे के शासक चंदेलराय को यह संदेशा भिजवाया की या तो महोबा युद्ध करे या समर्पण। उस समय सावन का महीना था और राजकुमारी चंद्रावल भुजरिया सिराने की जिद्द पकड़ी थी जबकी दिल्ली की सेना सीमा के करीब पहुँच चुकी थी ऐसे में महल से बाहर जाना और वो भी एक राजकुमारी का, खतरे से खाली नहीं था। लाख़ मनाने के बाद भी जब राजकुमारी नहीं मानी तब रानी ने आल्हा और ऊदल को संदेशा भिजवाने का फैसला किया। इस सुझाव को लेकर राजरानी राजा चंदेलराय के पास पहुँची। चंदेलराय ने यह कहकर मना कर दिया की उसी ने तो सेनापति माहेल के बहकावे में आकर आल्हा और ऊदल को महोबे से अपमानित करके निकलवाया था, अब वह किस मुँह से उन्हें पत्र लिखे। चंदेलराय ने रानी से कहा की आल्हा और ऊदल आपको माँ मानते हैं अतः आप ही उन्हें बुलावा भेजिए। इसे राजकुमारी भी सुन रही थी अतः बिना किसी देर किये उन्होंने आल्हा-ऊदल के नाम संदेशा भिजवा दिया। चूँकि आल्हा-ऊदल महोबे में न जाने का प्रण ले रखा था यद्यपि यह युद्ध महोबे जो की उनकी जन्मभूमि थी और उनकी बहन के इज्ज़त का था इसलिए उन्होंने अपने कुछ साथियों के साथ साधु के वेश में जाने का निर्णय लिया। महोबा पहुचकर वे राजमहल में आतिथ्य सत्कार ग्रहण किये चूँकि वे साधु के वेश में थे अतः उन्हें कोई पहचान नहीं पाया।  वे नरब्रह्म जो की महोबे का राजकुमार था के आतिथ्य सत्कार से खुश होकर उसे विजय का वरदान दिए और कहा की वह निश्चिन्त होकर युद्ध करे और वे यज्ञ करने का ढोंग करने लगे।  जब युद्ध शुरू हुआ तब आल्हा और ऊदल अचानक से सेना में घुसकर पृथ्वीराज चौहान के सेना को तहस नहस कर दिया। इसतरह इस युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की करारी हार हुई।"
ऐसे कई किस्से आपको आल्हाखण्ड के गीत में सुनने को मिलेगा। पृथ्वीराजरासो में आल्हा-ऊदल के बारे में थोड़ा जिक्र मिलता है.

                                                                        ( राहुल सिंह)       

 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मिट्टी का सामान बनाना कितना मुश्क़िल?

खुद से लड़ाई