एक प्रश्न

                                       एक प्रश्न  

श्रम करना 
हमसे कहते हो 
और नीचे से 
टांग हमारी खींचते हो 

विद्या को 
हमसे ग्रहण करवाते हो 
और चुपके से 
हमारी विद्या को पैसे से तौलते हो 

नन्हे से तोते को 
आज़ादी की पाठ पढ़ाते हो 
और उसके फड़फड़ाते ही ,
पिंजरे की किवाड़, झट बंद कर देते हो

रँग -विरंगे फूलों को 
खिलने को कहते हो 
और उसके खिलते ही 
तोड़ पॉकेट में रख लेते हो  

बहती निर्मल नदियों को 
अपने घर आमंत्रित करते हो 
और उसके आते ही 
दूषित उसे कर देते हो 

मन में उठते सागर को 
बहार लाने को कहते हो
 और उसके आते ही 
किसी नाले में बह जाने देते हो 

नन्हे से गोताखोर को 
विराट सिंधु में गोता लगाने को कहते हो 
और उसके गोता लगाते ही 
मंझधार में छोड़, नौका ले चल जाते हो 

तुम्हारी यही द्विरंगी क्रियाएँ 
मेरे अंतः मन को विचलित करतीं हैं 
और मैं सोचता हूँ 
ऐसा क्यों तुम करते हो ? 

                                  ~  राहुल-सिंह

 





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